रविवारीय श्रंखला: मृत्युभोज

✍️ अवधेश चौकसे
मृत्युभोज जीमने से पहले इस नन्हे से बालक पर गौर कीजिए।
थाली पर बैठने से पहले इस बच्चे की मासूमियत को देखिए।
फिर जब आप पहला निवाला मुँह में डालें, तो सोचिए कि यही बच्चा पाँच साल बाद
अपनी माँ की मेहनत से उगाई गई फसल बेचकर
हमारे एक वक्त के भोजन का ब्याज चुकाएगा।
स्कूल जाना तो दूर, यह बच्चा खेतों में मेहनत करेगा,
धूप में पसीने से तरबतर, फटे कपड़ों में,
हमारे एक दिन के भोजन का एक-एक कोर का हिसाब चुकाने के लिए।
हमारा एक दिन का भोजन, इस मासूम को जिंदगी भर भूखा रख देगा।
यही सबसे बड़ा अफसोस है।
मैं यह नहीं कहता कि सिर्फ खाने वाले लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं।
इस परंपरा के लिए पूरा समाज जिम्मेदार है,
जो ऐसे कृत्यों पर मौन सहमति देता है।
अगर हम इस व्यवस्था को बदल नहीं सकते,
तो कम से कम मृत्यु भोज का हिस्सा बनना तो छोड़ सकते हैं।
हमारा थाली पर न बैठना भी बहुत कुछ कर सकता है।
आइए, शपथ लें कि मृत्यु भोज में शामिल नहीं होंगे।
#परिवर्तन_की_ओर