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वेलेंटाइन डे और भारतीय संदर्भ… आलेख – सुशील शर्मा

वेलेंटाइन डे और भारतीय संदर्भ... आलेख - सुशील शर्मा

प्यार या प्रेम एक इंसान के लिए सबसे संतोषजनक भावनाओं में से एक है जिसे हर कोई अनुभव करना चाहता है। हर कोई प्यार पाने के लिए प्यार करता है। आप कुछ शब्दों में प्यार को परिभाषित नहीं कर सकते, हम में से हर एक के पास प्यार के बारे में अपना दृष्टिकोण है। यह किसी को शारीरिक रूप से और साथ ही भावनात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।

वेलेंटाइन डे की अवधारणा भारतीय संस्कृति से पूरी तरह से अलग है। भारत में लोग अपने पारिवारिक मूल्यों को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं और जहां हर दिन हर परिवार में आपसी स्नेह और एक दूसरे का समर्पण आचरण में होता है मैं वास्तव में यह नहीं समझता कि हमे साल के एक दिन में अपने प्यार के प्रदर्शन की जरूरत है।

भारत हमेशा से विश्व संस्कृतियों, धर्मों और परंपराओं को खुले हृदय से अपनाता रहा है , लेकिन अब हम पश्चिमी त्योहारों और संस्कृति के इस विपणन अभियान के कारण स्वदेशी संस्कृति में एक स्पष्ट गिरावट देख रहे हैं, जो लोगों को लगता है कि यह दिवस मनाना फैशनेबल है। लेकिन उन्हें नहीं मालूम की इस आयोजन को इस तरह से बाजार में उतारा गया है कि यह खास लग रहा है।

भारत में प्रेम का बहुत गहरा अर्थ है और अधिकांश भारतीय एक स्थायी संबंध के लिए प्रयास करते हैं जिससे शादी के बाद एक स्थिर जीवन मिल सके लेकिन अब रिश्ते स्पष्ट रूप से खोखले हैं और मुझे नहीं लगता कि उनमें प्यार का एक पल भी शामिल है, रिश्तों में प्यार की जगह अब केवल आकर्षण है। मेरा मानना ​​है कि प्यार कभी जोर जबरदस्ती या फैशन से नहीं होता बल्कि एक दूसरे के प्रति केयर से उत्पन्न होता है।

भारतीय संस्कृति वैलेंटाइन्स दिवस को अपने में समाहित कर सकती है जैसे कि इसने कई अन्य संस्कृतियों और त्योहारों को अवशोषित किया है। आखिरकार प्यार का जश्न अपने आप में हानिकारक नहीं है, लेकिन यह भूल जाना कि प्यार क्या है और स्थानीय संस्कृति और परंपराओं को सिरे से ख़ारिज करना क्योंकि वह वैश्वीकरण की परिभाषा के अनुरूप नहीं है, निश्चित रूप से हानिकारक है।

पश्चिमी संस्कृति में, हर चीज का व्यवसायीकरण होता है, इसलिए उनके पास वेलेंटाइन डे, फादर्स डे, मदर्स डे आदि जैसी अवधारणाएं हैं। ज्यादातर लोग अपने माता-पिता के साथ नहीं रहते हैं क्योंकि 16 वर्ष या अधिकतम 18 की उम्र पार करने के बाद बच्चों को एक बोझ माना जाता है। इसलिए प्यार के लिए उन्हें एक खास दिन की जरूरत होती है।
वैलेंटाइन डे का समाज पर ऐसा प्रभाव पड़ता है जो वास्तव में दिखाई नहीं देता। यह प्रभाव हिंदू समाज पर अधिक है, जो परंपराओं और संस्कृति से काफी हद तक जुड़ा हुआ है और इसमें से कई लोग आत्म शिथिल हैं।

व्यावसायीकरण से सब कुछ उत्पन्न हुआ, जहां यह कार्ड और गुलाब के साथ शुरू हुआ और अब महंगे रात्रिभोज, कपड़े, हीरे और यहां तक ​​कि छोटे अवकाश भी इसमें शामिल हैं । जोड़े भी अपने प्यार का प्रदर्शन करते हुए इन दिनों शालीनता की सभी सीमाओं को पार करते हैं, जो प्यार बेडरूम की चार दीवारों के भीतर आरक्षित किया जाता था आज उसे खुलें में आप कहीं भी देख सकते हैं । इसकारण से भारत के इस पश्चिमीकरण का विरोध करने वालों की संख्या बढ़ रही है।
वास्तव में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि त्योहारों को उनके नाम और मूल के बजाय किस तरह से मनाया जाय। जैसे अधिकार और कर्तव्य होते हैं, वैसे ही किसी भी त्योहार का जश्न और उसकी सीमा में होना चाहिए । वेलेंटाइन डे मनाने वाले युवाओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस समाज में हम रह रहे हैं वह परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है और समाज में कई बुरे तत्व हैं जो ऐसे दिनों का पूरा फायदा उठाते हैं। उनके लिए प्यार का मतलब शारीरिक होता है और इससे ज्यादा कुछ नहीं। यदि यह इरादा है तो यह सच है कि केवल वेलेंटाइन ही नहीं बल्कि ऐसा कोई भी त्योहार भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। इसके अलावा हमारा समाज एक खुला समाज नहीं हैं और जब हम इस तरह की बातों को खुले तौर पर कबूल करते हैं तो ये गलत माना जाता है। लेकिन अगर वेलेंटाइन डे त्योहार को शुद्ध पवित्र और अच्छी भावना के साथ मनाया जाता है और हम अपने प्रियजनों के साथ समय बिताते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है।

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