
शीर्षक – पूस की रात
पूस की रात हूं मैं ही,
रात रानी बन आती हूं,
सृष्टि का श्रृंगार हूं मैं,
जाड़ों की मां कहलाती हूं,
नीरवता और धुंध कुहासा,
मेरे आंचल के मोती हैं,
लंबी मेरी रातों में,
स्वप्न सुखद से बसते हैं,
चंद्र प्रभा के धवल ओज में,
माधुर्य समाया रहता है,
मेरी शीत लहर में ही,
फसलों में दाना आता है,
अन्नदात्री निशा हूं मैं,
पालन सृष्टि का करती हूं,
खुशहाली को लाने वाली,
सखी, सहचरी सी हूं मैं,
सर्द हवा, पसरा सन्नाटा,
रौब है मेरी रजनी का,
नन्हे मोती बूंद ओस के
पीयूष है मेरी रैना का,
हेमंत निशा मैं हिमनद सी,
थर्राती कुछ इठलाती हूं,
ठिठुरन, सिहरन पैदा करती,
कंपकपाती ठंडी लाती हूं,
पूस की रात हूं मैं ही,
रात रानी बन आती हूं…
डॉ. प्रियंका श्रीवास्तव ‘प्रियांजलि’
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