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श्री भगवान उवाच “नवम अध्याय”

गीता जयंती पर विशेष
श्री भगवान उवाच

दोस्त दृष्टि से रहे तू, मेरा अनुपम भक्त।
कपट दुःख से मुक्त तुम, सुनो ज्ञान यह गुप्त।1
सब विद्या इसमें निहित, यह विज्ञान प्रकार।
अति पवित्र उत्तम सदा, धर्म ज्ञान आचार।
है प्रत्यक्ष पुण्यप्रद, धर्म युक्त अविनाश।
अति गोपनीय सहज यह, है ये ज्ञान प्रकाश।2
मनुज धर्म से विरत हो, श्रद्धा से हो रिक्त।
वह नर मुझसे दूर है, जन्म मरण संयुक्त।3

सभी भूत मुझ से बने, ही मेरे ही संकल्प।
पर उनसे मैं विरत हूँ, हिम जल सदिश विकल्प।4

आत्म रहित सब भूत हैं, फिर भी आत्मस्वरूप।
भूतों से मैं हूँ अलग, धारित आत्मा रूप।5

नभ से उपजा पवन ज्यों,नभ में रहे विलीन।
सभी भूत संकल्प से, मुझ में रहें अधीन।6

मुझ में ही कल्पान्त में, होते भूत विलीन।
आदि कल्प के समय फिर, रचता भूत नवीन।7
प्रकृति जन्य सब भूत हैं ,स्वयं भाव आसन्न।
कर्मों के अनुसार मैं,रचता भूत प्रपन्न।8

नहीं कर्म आसक्त मैं, ना ही मैं परतंत्र।
कृत कर्ता अरु कर्म से, मैं हूं स्वयं स्वतंत्र।9

प्रकृति चराचर को रचे, लेकर मेरा ईश।
चक्र जगत का नित्य है,मैं इसका आधीश।10
परम भाव से विलग नर,माने मुझे मनुष्य
मैं परमेश्वर ईश हूँ, जगत नियत पौरुष्य।11

अज्ञानी जन धारते, व्यर्थ कर्म अरु ज्ञान।
असुर राक्षसी मोहनी, प्रकृति रूप अज्ञान।12

देव प्रकृति आश्रित सुजन, भजते मेरा नाम।
सब भूतों का जन्य मैं, नित्य सत्य परिणाम।13
भक्त मेरे भजते मुझे, गुण कीर्तन आराध।
ध्यान सदा मुझ में रमा, श्रद्धा रखें अगाध।14
ज्ञानी जन मुझको भजें, निर्गुण सगुण स्वरूप।
है विराट अरु विविधतम,मेरे पूजा रूप।15

मैं कृतु औषधि यज्ञ हूँ, अग्नि स्वधा शुभ मंत्र।
घृत स्वाहा समिधा हवि, मैं ही सारे तंत्र।16

मैं ही देता हूँ सदा, कर्म फलों का दान।
मात-पिता मैं पितामह, जगत नियंता जान।
ओम नाद मुझ में निहित, मैं हूं ब्रह्म अरूप
मैं जग का आधार हूँ चारों वेद स्वरूप।17

सबका स्वामी परम मैं ,सबका पालनहार।
जन्म प्रलय का हेतु मैं, मैं निर्गुण साकार।
सब का आश्रय हेतु मैं,सबका अंतस भान।
परहित का मैं हेतु हूँ, मैं अविनाशी ज्ञान।18

सूरज का मैं ताप हूँ, मैं ही वर्षा हेतु।
मैं अमृत अरु मृत्यु हूँ, मैं सत असत प्रणेतु।19
सत कर्मों से युक्त नर, पूजे मुझे विधान।
देव तुल्य वो स्वर्ग में, करे सोमरस पान।20

तीनों वेद विधान हैं, स्वर्ग के साधन रूप।
करता कर्म सकाम नर, मिले स्वर्ग प्रारूप।
स्वर्ग भोगता जीव जब, करे पुण्य को क्षीण।
बार-बार आवागमन पाता जीव प्रवीण।21

जो अनन्य प्रेमी मनुज,करे कर्म निष्काम।
मुझ परमेश्वर को भजे ,पहुंचे मेरे धाम।22

अन्य देव को भी भजे, जो नर श्रद्धा युक्त।
भले अविधि पूजन करे,पर वह मेरा भक्त।23

मैं स्वामी सचराचरा , भोगूँ सारे यज्ञ।
जन्म मरण उनको मिले, जो मुझसे अनभिज्ञ।24

देव पितर अरु भूत का, पूजन करें विधान।
उनको वो ही प्राप्त हो, जिनका है संज्ञान।
जो नर श्रद्धा से भजे, लेकर मेरा नाम
जन्म मरण से मुक्त वह, पाता मेरा धाम।25

पत्र पुष्प फल प्रेम से, भेंट चढ़ाए भक्त।
सगुण रूप स्वीकारता, भेंट नेह अनुरक्त।26

कर्म दान तप हवन सब,जो भी हैं उपभोग।
हे अर्जुन अर्पित करो, मुझको सारे भोग।27

मुझ भगवन के हेतु तू ,कर अर्पित सब कर्म।
कर्म बंध से मुक्त हो, यही सत्य का मर्म।28

सब भूतों में व्याप्त मैं, रखता हूं सम भाव।
कोई नहीं प्यारा मुझे, नहीं यथा दुर्भाव।
भक्त मुझे भजते सदा, नित्य नियम तल्लीन।
में उनमें बसता सदा,जो मुझ में हैं लीन।29

दुराचार तज कर मनुज, भजता मुझे अभिन्न।
वह नर साधु समान है, मुझमें रहे प्रपन्न।30

धर्म रास्ते पर चलें,त्यागें सब दुष्कर्म।
नष्ट कभी होता नहीं, भक्त मेरा सुधर्म।31

शूद्र वैश्य नारी सभी, पाप योनि चाण्डाल।
शरणागत मुझ में रहें, मिले परमगति भाल।32
ब्राह्मण राजस भक्तजन, पाते मेरा धाम।
क्षणभंगुर तन धार कर बस मेरा ले नाम।33

मन को मुझ में रख सदा, भज ले मेरा नाम।
जीव आत्म मुझ में मिला, मुझको करो प्रणाम।34
+++नवम अध्याय+++
सुशील शर्मा

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