लोक संस्कृति का रंग बिखेरती स्कूल पत्रिका_प्रवाहिनी: डॉ मंजुला शर्मा
लोक संस्कृति का रंग बिखेरती स्कूल पत्रिका_प्रवाहिनी: डॉ मंजुला शर्मा
गाडरवारा। 24 दिसंबर 2024 को शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, गाडरवारा में लोक संस्कृति पर आधारित वार्षिक पत्रिका प्रवाहिनी का विमोचन समारोह संपन्न हुआ।छात्राओं, शिक्षकों एवं माननीय जनों के शुभकामना संदेशों से सुसज्जित पत्रिका अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए हैं
आज के मोबाइली युग में जबकि छोटे बड़े सबके मन- मस्तिष्क मोबाइल में आकंठ डूबे हुए हैं ऐसे में पत्रिका का विमोचन और उस पर भी लोक संस्कृति को आधार बनाकर विमोचित करना एक विशिष्ट, विचारणीय कार्य है
वर्तमान समय में लेखन और पठन जैसे रुक-सा रहा है सब कुछ मोबाइल में ही हो रहा है ऐसे में विद्यार्थियों पर भी इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा है। विद्यार्थी , बड़े सब कुछ भी लिखने में अपने आप को अक्षम महसूस कर रहे हैं या लिखने से बच रहे हैं ऐसे में बुंदेली लोक संस्कृति की विविध विधाओं को छात्राओं द्वारा लिखा जाना बहुत कुछ कहता है।
इस पत्रिका में छात्राओं ने दैनिक जीवन में बिखरे अनेक मुहावरे और कहावतें, भजन गारियां, बन्ना- बन्नी दादरे, सोहरे ,त्यौहार गीत और अनेक लोक प्रचलित कथाओं के साथ-साथ स्वयं के मन मानस में गूंज रही घटनाओं को कहानी और लेखों में आवद्ध करके लिखा है ।
यह पत्रिका इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके संयोजन ने मोबाइल और पुस्तकों के बजाय बच्चों को और शिक्षकों को भी अपने बड़े बुजुर्गों के पास खुशी-खुशी बैठने हेतु प्रोत्साहित किया विद्यालय की शिक्षिकाएं अपनी सासू मां से ,ससुर से, दादी -नानी सेऔर पड़ोसियों से लोकोक्तियां और मुहावरे अहाने कहते पूछते रहे। विद्यार्थी भी बड़े बुजुर्गों के साथ बैठे।
बड़े बुजुर्गो का यही एक बड़ा दुख है कि बच्चे उनके पास नहीं बैठते,उनकी सुख दुख भरी बातें नहीं सुनते तो प्रवाहिनी ने परिवार में एक सुखद वातावरण का निर्माण कर प्रेम प्रवाह भी किया।विद्यालय का पूरा स्टाफ अपने ग्रुपों में दिन-रात जो कहावतें लोकोक्तियां याद आती उन्हें लिखता रहा ।महिला शिक्षक रोटी बेलते और कंघी करते भी कोई कहावत, मुहावरा याद करतीं और समय न होने पर भी आडियो के रुप में ग्रुप में भेज ही देतीं। फिर सब मिलकर खूब हंसतीं ।
<span;> इस पत्रिका में वह मुहावरे कहावतें या कहानी सम्मिलित किए गए जो गूगल पर या किताबों में कम देखने को मिलते हैं समय-समय के व्रत त्योहार की कथाएं और उनको दैनिक जीवन और वैज्ञानिकता से जोड़ने वाले तथ्यों को भी कागज पर उतारने का सफल प्रयास किया गया।
यह बात बिल्कुल सत्य है कि हमारे बड़े बुजुर्गो ने जिन उन्नत लोक विधाओं का सृजन किया और उन्हें अपने समाज में बिखेरा वे अद्भुत ज्ञान और अनुभव के भंडार हैं।
जैसे-जैसे हम विकास करते गए वैसे-वैसे हम अपनी व्यस्तता में इन बहुमूल्य रतनों को धूमिल करते गये। हमारी नानी को हजारों गीत और किस्से कहावतें आते थे, हमारी मां को सैकड़ो गीत और कहानी आती थी इनमें से पचासों हमें भी आते है पर हमारे बच्चे…. उन में से दो पांच भी बमुश्किल ही सीख पाये। हमसे व्यस्ततम और संभ्रांत परिवारों में तो वह भी शून्य है ।ऐसे में निश्चित है कि हमारी पीढ़ी इन बहुमूल्य लोक विधाओं की हत्यारी कही जाएगी क्योंकि अनेक वर्षों के अनुभव और <span;>तपे तपाये ज्ञान के आधार पर जिन लोक विधाओं का सृजन हुआ था और जिन्हें अनेकों पीढ़ियां ने एक दूसरे को हस्तांतरित करने के अपने दायित्व का निर्वहन किया था उसमें हम चूक रहे हैं हमारी गलती से अगर आने वाली पीढ़ी वह सब नहीं अपनाती तो वह समाप्त हो जाएगा और पुनः उसे प्राप्त करना असंभव है।
मोबाइल का युग इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि इसमें ज्ञान का अनंत प्रवाह है, सब तरह का ,सब विषयों का अनंत ज्ञान आदमी को या तो पागल बना देता है या निष्क्रिय क्योंकि उसके दिमाग की एक क्षमता होती है जैसे बहुत भोजन मिल जाने पर उससे अरुचि हो जाती है और जितना कोई सहज ही पा सकता था उसको भी पाने की इच्छा शेष नहीं रह जाती इसी तरह हमारी नौनिहाल पीढ़ी भी वाट्सपिया ज्ञान की भरमार में लोक संस्कृति की अनमोल धरोहर को बिसार रही है।
ऐसे अपरंपार मोबाइली युग में अनेक भाषाओं के असीमित गीत कथाओं के बीच भी स्वयं के द्वारा विद्यालय की पत्रिका के लिए लेखन और उसके लिए सृजन अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है
आवश्यकता इस बात की भी है कि हमें बच्चों के मन मस्तिष्क में यह विचार दृढ़ता से जमा करना होगा कि हमारी इस लोक संस्कृति को और इसके महत्व को जानना आवश्यक क्यों है उन्हें यह बताना होगा कि हमारे पूर्वजों ने कितनी मेहनत और कितनी दूरदर्शिता से इस ब्रहत्तर लोक संस्कृति का सृजन किया है इन सब में संन्निहित शिक्षाओं और मनोरंजन से उनका परिचय कराना होगा अगर एक बार उनके मनमें इनको जानने और समझने की रुचि पैदा हो गई तो हम इस लोक संस्कृति के अवरोधक बनने से बच जाएंगे ।
हमें भी यह विचार करना होगा कि आखिर क्यों हम इस बहती धारा को अवरुद्ध करने पर तुले हैं क्यों हम आने वाली पीढ़ी को इस अमूल्य धरोहर को हस्तांतरित करने में असमर्थता जता रहे हैं जबकि यह अनवरत धारा अनेक पीढ़िया से चली आ रही है हमें आज इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि जब आज हम दो चार शब्द यहां वहां से चुरा कर लिखकर उसको प्रिंट मीडिया पर प्रेषित करके लोगों की वाहवाही की प्रतीक्षा करते हैं अगर लिखे पर कॉमेंट्स नहीं होते हैं तो हमारा मन खिन्न हो जाता है पर हमारे पूर्वजों ने कितनी मेहनत से इतने असीमित और महत्वपूर्ण सृजन को बिना नाम के ही प्रचारित प्रसारित कर दिया हमें यह नहीं पता कि कोई गीत ,गारी ,मुहावरा या लोक कथा किसने लिखी वह अनावृत घटती गई और प्रचारित प्रसारित होती रही। यह अनुमान लगा पाना असंभव है कि हमारे जीवन में हमारी समझ में कितनी लोकोक्तियां कितने मुहावरे कितनी कथाएं और कितने गीत विद्यमान है और कितने हम भूल चुके हैं और किसने इनको,कब रचा है अगर यह सब हमारे मस्तिष्क में आने लगे तो हम इसको अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने के लिए अवश्य ही प्रयासरत होंगे।
व्याकरण की दृष्टि से इन गीतों कहावतें और कथाओं में ज्ञान का असीम भंडार भरा है हमारे लोकगीतों में जिन रसों ,छंदो ,लय और लाल आदि का प्रयोग किया गया है सब उसी को तोड़-मरोड़ कर बनाया जा रहा है उससे कुछ भी नया बना पाने में हम असमर्थ हैं ।एक-एक गीत और गारी उपमा, रूपक अनुप्रास और मानवीकरण से लबालब भरा हुआ है हमारी कथाएं मनोरंजन और ज्ञान का भंडार है अनेक अनेक चरित्र घटनाओं और भावों को प्रदर्शित करती यह कथाएं अपने आप में अपने समय के देशकाल वातावरण और परिस्थितियों को अपने में समेटे हैं जिन्हें हम देख नहीं पा रहे हैं एक गारी एक दिन हमने <span;>सुनी। गारी में अपने परिजन को संबोधित करते हुए कहा जा रहा था–
एक बेरा गए जे नर्मदा सपर बे
घूटो घूंटों पानी में गोचा जे खाएं
में रंजन भौंरा….
गारी की इन पंक्तियों को सुनकर सहज ही मन बोल उठा कि यह गारी नर्मदा मैया की महिमा के साथ-साथ अपनी परिजन के उपहास पूर्ण मनोरंजक शब्दों में यह साबित करती है कि अति प्राचीन काल से नर्मदा स्नान का विधान है नर्मदा के महत्व को जानते हैं तभी गीत में नर्मदा का उल्लेख किया गया इसी में आगे कहा गया
एक बेरा गए थे जे बोनी करावे
टोर आये नारी ,चबाये आये बीज
मोरे रंजन भौंरा
इस कड़ी में उस स्थिति का अप्रत्यक्ष वर्णन है जब धनाढ्य घरों के लोग भी अपने आप को पूरी तरह किसान ही समझते थे और खेतों में नारी से बुबाई करते थे आज हमारी पीढ़ी के 90% लोग शायद ‘नारी’ शब्द के इस अर्थ से परिचित न हों। नारी बुवाई का एक यंत्र था और यह लकड़ी का बना हुआ एक चक्रीय यंत्र था जिसमें दाना दाना करके खेतों में बीज डाले जाते थे।
इस तरह हमारे सभी प्राचीन गीत कथाएं और मुहावरे हमें उन परिस्थितियों की ओर ले जाते हैं जिनसे निकल कर ही हम आज के समृद्ध जीवन को जी रहे हैं अतः मेरी दृष्टि में प्रवाहिनी का विमोचन एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है।
विद्यालय स्तर पर जहां बच्चे बचपन और समाज के बीच अपने आप को अंकुरित करने के लिए लालायित खड़े हैं और आगे चलकर वे आने वाली पीढ़ी का नेतृत्व करेंगे प्रवाहिनी संकेत दे रही है कि इस पीढ़ी को हमें अपनी समृद्ध प्राचीनता से जोड़े रखना है। हमें प्रयास करना है कि हमारी समृद्धि लोक संस्कृति ,हमारी पुरातन परंपराएं और असीमित ज्ञान के वे स्रोत हमारे कारण बंद न हो हम उनके अवरोधक न बने। हम हत्यारे ना कहलाए उन कलाओं के जो हजारों लाखों वर्षों की मेहनत के परिणाम हैं।
डॉ मंजुला शर्मा
इस तरह के प्रयास अगर होते रहे तो प्राचीन संस्कृति के झरने आगे बढ़ते रहेंगे,बहते रहेंगे और अपना मार्ग बनाते रहेंगे। अगर पुरातन संस्कृति विलुप्त हो जाती है तो ऐसा मान लें कि इस वृक्ष की जड़े सूख जाएगी, जड़े सूख जाने पर तो वृक्ष का हरा भरा रह पाना कठिन है क्योंकि ऊपर ऊपर की सुंदरता बहुत दिनों तक नहीं टिकती है हम सब यह अच्छी तरह समझ लें कि हमारी प्राचीनता ही हमारी जड़ है और आनेवाली पीढ़ी उनके फल -फूल। वे फल फूल तभी रसीले सुंदर और स्वादिष्ट रह सकते हैं जब जड़े मजबूत हो।
प्रवाहिनी का प्रकाशन इसी जड़ की मजबूती का संकेत दे रहा है इस तरह के प्रयास किए जाते रहें आज हम सबका यह महती दायित्व है । हम सब मिलकर बालमन में संस्कृति और संस्कारों के प्रति समझ और रुचि पैदा करें। हम सबको ऐसे भी प्रयत्न करना चाहिए कि हमारे बच्चे हमारे पास बैठें और हमसे वह सब सीखें जो हमें हमारे बड़े बुजुर्गों ने हमें सिखाया है।अगर हम ऐसा नहीं कर पाते तो सब हमारे साथ मिट जाएगा। और तब मोबाइली कंगूरेदार दिखावटी भवन बनते रहेंगे, ढहते रहेंगे।