उपकार करो, अपकार नहीं: आस्तिक सागर जी महाराज

गाडरवारा। स्थानीय चावड़ी वार्ड स्थित जैन मंदिर के वीर विद्या नीलय में आचार्य आस्तिक सागर जी महाराज ने प्रवचन देते हुए कहा कि “इस संसार में यदि जीना है तो सबका उपकार करते चलो।” उन्होंने बताया कि जैन गीता में उल्लेख है कि एक जीव को दूसरे जीव के प्रति उपकार की भावना रखनी चाहिए।
वाणी में मधुरता और क्षमा का भाव आवश्यक
मुनि श्री ने समझाया कि हमारी वाणी ऐसी होनी चाहिए कि किसी भी जीव को दुख न पहुंचे। यदि हमारे मुख से कोई कटु शब्द निकल जाए, तो हमें आत्मग्लानि होनी चाहिए और उस जीव से क्षमा याचना करनी चाहिए।
अहिंसा ही जैन धर्म का मूल आधार
उन्होंने कहा कि जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है, जिसमें हिंसा को पहला पाप माना गया है। उन्होंने हिंसा के दो प्रकार बताए:
- द्रव्य हिंसा – जिसमें प्रत्यक्ष रूप से किसी जीव को कष्ट पहुंचाया जाता है।
- भाव हिंसा – जिसमें हम किसी के प्रति बुरी भावना रखते हैं या मन में किसी के लिए अपकार की सोच रखते हैं।
मुनि श्री ने समझाया कि हमें किसी भी जीव के प्रति बुरा नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि इससे हमारे विशुद्ध परिणाम का घात हो जाता है, जो आत्मिक पतन का कारण बन सकता है।
इच्छाओं को सीमित कर, खुश रहें और खुश रखें
मुनि श्री ने बताया कि जीवन में यदि हम चाहते हैं कि हमारी आत्मा शुद्ध बनी रहे, तो हमें अपनी इच्छाओं को सीमित रखना चाहिए। जीवन में साम्यभाव को अपनाकर स्वयं भी खुश रहें और दूसरों को भी खुश रखें।
इस प्रवचन में बड़ी संख्या में जैन समाज के श्रद्धालु उपस्थित रहे और उन्होंने मुनि श्री के उपदेशों को आत्मसात करने का संकल्प लिया।