देवप्रभाकर शास्त्री (दद्दा जी): गुरु परंपरा के एक आलोक स्तंभ – गुरु पूर्णिमा पर आलेख – सुशील शर्मा

गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर, जब हम गुरु-शिष्य परंपरा के महत्व को आत्मसात कर रहे हैं, आचार्य देव प्रभाकर शास्त्री जी जिन्हें प्रेम से ‘दद्दा जी’ कहा जाता था, का स्मरण करना अत्यंत प्रासंगिक है। दद्दा जी का जीवन स्वयं में गुरु की महत्ता का एक जीवंत उदाहरण था। उनका कृतित्व और व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति में गुरु के स्थान को पुनः स्थापित करता है, विशेषकर ऐसे समय में जब डिजिटल ज्ञान की बाढ़ ने पारंपरिक मार्गदर्शन की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाए हैं।
दद्दा जी: एक संत, एक गुरु, एक समाज सुधारक
देवप्रभाकर शास्त्री जी का जन्म अनंत चतुर्दशी के पावन पर्व 19 सितम्बर 1937 को हुआ था. इसलिए उनका जन्म दिवस प्रत्येक वर्ष अनंन्त चतुर्दशी के दिन मनाया जाता था. दद्दा जी का जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के तहसील सिहोरा के ग्राम कूंडा में एक साधारण किसान के यहां हुआ था. इनके पिता नाम गिरधारी दत्त जी त्रिपाठी और माता का नाम ललिता देवी था. उन्होंने अपना जीवन समाज सेवा, आध्यात्मिक जागृति और सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उनका प्रभाव किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं था; वे एक संत, एक चिंतक, एक समाज सुधारक और सबसे बढ़कर, एक ऐसे गुरु थे जिन्होंने हजारों लोगों के जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया।
दद्दा जी की शिक्षा-दीक्षा पारंपरिक संस्कृत विद्यालयों और गुरुकुलों में हुई थी। उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण और ज्योतिष का गहन अध्ययन किया। उनकी विद्वत्ता के साथ-साथ उनकी सरलता और सहजता ने उन्हें जन-जन का प्रिय बना दिया। वे केवल धार्मिक उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि अपने कार्यों से समाज को एक नई दिशा भी दिखाते थे। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण, गो-रक्षा, वृक्षारोपण और जल संचयन जैसे कार्यों को भी बढ़ावा दिया, जो उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है।
गुरु की महत्ता: दद्दा जी के जीवन से प्रेरणा
गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय संस्कृति का आधारस्तंभ रही है। गुरु वह पथ प्रदर्शक है जो अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है।
दद्दा जी के जीवन से गुरु की महत्ता को कई आयामों से समझा जा सकता है:
ज्ञान का हस्तांतरण और मार्गदर्शन:
दद्दा जी ने अपने प्रवचनों, सत्संगों और लेखों के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान को सरल भाषा में जनमानस तक पहुँचाया। वे सिर्फ किताबी बातें नहीं बताते थे, बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्यों को व्यावहारिक उदाहरणों से समझाते थे। उनका मार्गदर्शन केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं था, बल्कि वे जीवन की प्रत्येक समस्या में एक शिष्य के लिए विश्वसनीय सहारा थे।
चरित्र निर्माण और नैतिक शिक्षा:
गुरु की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं है, बल्कि वह शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है। दद्दा जी ने अपने शिष्यों को सत्यनिष्ठा, अहिंसा, करुणा और निस्वार्थ सेवा जैसे मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाया। उनके जीवन का उदाहरण ही उनकी शिक्षा का सबसे बड़ा प्रमाण था। वे स्वयं इन मूल्यों को जीते थे, जिससे उनके शिष्य स्वाभाविक रूप से प्रेरित होते थे।
आध्यात्मिक जागृति और आत्म-साक्षात्कार:
दद्दा जी ने अपने शिष्यों को केवल भौतिक सुखों के पीछे भागने के बजाय, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख किया। उन्होंने ध्यान, योग और मंत्र जाप के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनके सान्निध्य में कई लोगों ने अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य खोजा।
व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान:
दद्दा जी केवल एक आध्यात्मिक गुरु नहीं थे; वे एक ऐसे मार्गदर्शक भी थे जो अपने शिष्यों की व्यक्तिगत समस्याओं को सुनते थे और उन्हें व्यावहारिक समाधान देते थे। चाहे वह पारिवारिक कलह हो, करियर की चिंता हो, या स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो, उनके पास हर किसी के लिए धैर्यपूर्ण श्रवण और विवेकपूर्ण सलाह होती थी।
परंपरा और आधुनिकता का संगम:
दद्दा जी ने प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया। वे रूढ़िवादिता के विरोधी थे, लेकिन परंपराओं के महत्व को समझते थे। उन्होंने दिखाया कि कैसे प्राचीन सिद्धांत आज भी हमारे जीवन के लिए प्रासंगिक हो सकते हैं।
भव्य यज्ञों का आयोजन: पार्थिव शिवलिंग अभिषेक
दद्दा जी के जीवन का एक सबसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण पहलू करोड़ों पार्थिव शिवलिंगों के अभिषेक के भव्य यज्ञों का आयोजन था। ये यज्ञ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं थे, बल्कि उनमें पर्यावरण संरक्षण, जल संचयन, सामाजिक समरसता और आध्यात्मिक जागृति का गहरा संदेश निहित था।
इन यज्ञों में, दद्दा जी के आह्वान पर, लाखों की संख्या में श्रद्धालु एक साथ एकत्रित होते थे। ये श्रद्धालु अपने हाथों से मिट्टी (पार्थिव) के शिवलिंगों का निर्माण करते थे। एक अनुमान के अनुसार, कई यज्ञों में करोड़ों की संख्या में पार्थिव शिवलिंग बनाए जाते थे। इसके बाद, इन्हीं शिवलिंगों का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ सामूहिक अभिषेक किया जाता था।
इन यज्ञों की कुछ प्रमुख विशेषताएँ थीं:
जन-भागीदारी:
ये यज्ञ किसी एक व्यक्ति या संप्रदाय तक सीमित नहीं थे। दद्दा जी के आह्वान पर, हर वर्ग और हर तबके के लोग इन यज्ञों में अपनी सेवाएं देने और अभिषेक करने के लिए आते थे। यह सामूहिक एकता और श्रद्धा का अद्भुत संगम होता था।
पर्यावरण चेतना:
इन यज्ञों से दद्दा जी ने पर्यावरण संरक्षण का भी विशेष संदेश दिया। वो अक्सर अपनी भागवत कथा में भूमि और पृथ्वी को संरक्षित करने की बात करते थे दद्दा जी किसान पुत्र थे अतः भूमि से उनका लगाव स्वाभाविक था उनके परम शिष्य आशुतोष राना भी पर्यावरण के संरक्षण के प्रति कटिबद्ध हैं।
अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय:
दद्दा जी ने इन यज्ञों से न केवल नई पीढ़ी को अध्यात्म से जोड़ा, बल्कि इनमें निहित वैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभों पर भी प्रकाश डाला। मिट्टी के शिवलिंग बनाना और उनका अभिषेक करना मानसिक शांति, एकाग्रता और सकारात्मक ऊर्जा के संचार में सहायक माना जाता था।
सामाजिक समरसता:
इन विशाल आयोजनों में सभी धर्मों, जातियों और वर्गों के लोग एक साथ मिलकर कार्य करते थे और प्रसाद ग्रहण करते थे। यह सामाजिक समरसता और समानता का एक अनूठा उदाहरण था, जो समाज में भेदभावन मिटाने में सहायक होता था।
आत्म-शुद्धि और सकारात्मक ऊर्जा:
लाखों लोगों द्वारा एक साथ मंत्रोच्चार और अभिषेक करने से एक विशाल सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता था, जिससे वातावरण शुद्ध होता था और श्रद्धालुओं को आत्मिक शांति मिलती थी।
दद्दा जी के ये यज्ञ भारत के विभिन्न हिस्सों में आयोजित किए गए और प्रत्येक यज्ञ अपने आप में एक विशाल और अविस्मरणीय घटना होती थी। उन्होंने इन यज्ञों के माध्यम से न केवल धार्मिकता का प्रचार किया, बल्कि पर्यावरण, समाज और व्यक्तिगत उत्थान के लिए भी महत्वपूर्ण संदेश दिए।
शिष्य का समर्पण: आशुतोष राणा और दद्दा जी का अनूठा संबंध
दद्दा जी के हजारों शिष्यों में से एक प्रमुख नाम फिल्म अभिनेता आशुतोष राणा का है। आशुतोष राणा अक्सर सार्वजनिक मंचों पर और अपने लेखन में दद्दा जी के प्रति अपने अगाध श्रद्धा और गहरे समर्पण को व्यक्त करते रहते हैं। उनका संबंध केवल एक आध्यात्मिक गुरु और शिष्य का नहीं, बल्कि एक पिता-पुत्र जैसा गहरा भावनात्मक जुड़ाव था।
आशुतोष राणा ने कई बार बताया है कि कैसे दद्दा जी ने उनके जीवन को एक नई दिशा दी। जब वे युवा थे और जीवन में भ्रमित थे, तब दद्दा जी ने उन्हें सही मार्ग दिखाया, उन्हें जीवन के गहरे अर्थ से परिचित कराया और उन्हें यह सिखाया कि सफलता का वास्तविक अर्थ क्या है। आशुतोष राणा के अनुसार, दद्दा जी ने उन्हें ‘भीतर की यात्रा’ करना सिखाया और समझाया कि बाहरी उपलब्धियाँ क्षणभंगुर होती हैं, जबकि आंतरिक शांति और संतोष ही स्थायी सुख है।
राना जी अपने गुरु की शिक्षाओं को अपने जीवन में पूरी तरह से आत्मसात करते हैं और सार्वजनिक रूप से उनके विचारों को साझा करने में गर्व महसूस करते हैं। उनके लेखों और कविताओं में अक्सर दद्दा जी की शिक्षाओं और विचारों की झलक मिलती है। यह समर्पण केवल मौखिक नहीं है, बल्कि उनके व्यवहार और जीवनशैली में भी परिलक्षित होता है। वे अपने गुरु की सीख को समाज तक पहुंचाने का एक माध्यम बन गए हैं, जो गुरु के प्रति एक शिष्य के अटूट विश्वास और कृतज्ञता का बेहतरीन उदाहरण है।
देवप्रभाकर शास्त्री (दद्दा जी) का जीवन और कार्य गुरु की महत्ता का एक शाश्वत प्रमाण है। उन्होंने दिखाया कि गुरु केवल सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि ज्ञान, विवेक, प्रेरणा और नैतिक विकास का आधार है। आशुतोष राणा जैसे शिष्यों का उनके प्रति समर्पण यह दर्शाता है कि गुरु-शिष्य परंपरा आज भी कितनी जीवंत और प्रभावशाली है। दद्दा जी द्वारा किए गए करोड़ों पार्थिव शिवलिंग अभिषेक के यज्ञ उनके दूरदर्शी सोच और जन-कल्याण के प्रति उनके समर्पण को दर्शाते हैं। गुरुपूर्णिमा का यह दिन हमें स्मरण कराता है कि चाहे कितने भी तकनीकी आविष्कार क्यों न आ जाएँ, गुरु का स्थान हमारे जीवन में हमेशा अद्वितीय और अपरिहार्य रहेगा। वे हमें केवल मार्ग नहीं दिखाते, बल्कि उस मार्ग पर चलने का साहस और विश्वास भी देते हैं। दद्दा जी जैसे गुरुओं की परंपरा हमें याद दिलाती है कि सच्चे ज्ञान का संचार केवल डेटा के माध्यम से नहीं, बल्कि एक हृदय से दूसरे हृदय तक होता है।
✒️सुशील शर्मा✒️